Verse 1
सुबह का सूरज देखके सोचो, मन कितना हर्षित होता है।
फिर दिन कैसे ऊपर चढ़ता है, और शाम ढले तक तपता है।
फिर डूबता दूर शितिज में जाकर और रात का मेला लगता है।
पर सूरज उगता हर पल हर क्षण, दूर किसी अंधियारे में।
पाना खोना खेल है देखो, रात हो या उजियारे में।
रात के पहलू में भी देखो, कितने सपने पलते हैं।
काम खत्म अब यहाँ से अपना, अच्छा तो अब चलते हैं।
Verse 2
नव सूरज सा तेज लिए हम, आये थे एक रोज़ यहां।
नई किरण की पिचकारी से, बरसाए थे रंग यहां।
रंगों का भी एक नियम हैं, धीरे धीरे हल्का पड़ना।
वो नई कूंचीयों का आकर के, रंगों को फिर ताज़ा करना।
पर रंगों की परतें खुरचें तो, कुछ पहचाने रंग निकलते हैं।
काम खत्म अब यहाँ से अपना, अच्छा तो अब चलते हैं।
Verse 3
एक ही सूरज जग में होता, तो तारे रात सजाते कैसे?
रात का तम गहरा न होता, उजियारे फिर आते कैसे?
जीवन का बस एक नियम है, परिवर्तन केवल है स्थाई।
नव सूरज का दर्शन करने, चलते हैं अब मेरे भाई।
राही रुकना नहीं है मुमकिन, जो पाँव धूप में जलते हैं।
काम खत्म अब यहाँ से अपना, अच्छा तो अब चलते हैं।
Verse 4
नया है सूरज नए रंग हैं, नई भोर नव तरुणाई।
नए नए अनुभव हैं हर दिन, जीवन लेता अंगड़ाई।
उपवन फिर से नया हुआ है, नए सुमन है, छटा नई।
बरगद फिर भी वही पुराना, कारज उसका घटा नहीं।
बेलें जो सटी हुई टहनी से, वटवृक्ष ने दिया सहारा है।
आंधी, अंधड़, बारिश, आतप, सबसे उन्हें उबारा है।
हर पौधे से उपवन रोशन, सबकी इसे ज़रूरत है।
कण कण के मोती से बनती, इतनी सुंदर मूरत है।
अलग खड़े जो पादप रहते, पर्ण उन्ही के जलते हैं।
काम खत्म अब यहाँ का अपना, अच्छा तो अब चलते हैं।
-मुसाफ़िर
Leave a comment