माँ हूँ कि अपना कर्तव्य जानती हूँ।
पीड़ा को सारे कुटुम्ब की,
मैं अपनी पीड़ा मानती हूँ।
अधरों पे रखे झूठ हो
या हो दिल की सच्चाई कोई
दुनिया भर की गरमाई को
शीतलता देना जानती हूँ।
खुद से जुदा जुदा सी मैं सबसे जुड़ी हुई होती हूँ।
निज इच्छा को मार मार
पाने से ज़्यादा खोती हूँ।
अपनी इस बेरुखी को मैं
बेफिक्री कहकर टालकर।
चेहरे से मुस्काती हूँ
अंदर से अक्सर रोती हूँ।
बच्चों में अपना साया देख बुन लेती हूँ सपने कई।
उनकी आंखों में झांक कर
पा जाती हूँ अपने कई।
उनका दर्द देख लगे
ज़ख्मी मुझे अपना बदन
आंखें फिर अपनी मूंद कर
लगती मंत्र जपने कई।
माँ होना बड़ा मुश्किल है काम
दिन से न जाने कब होती शाम।
रात भी अपनी बेकल जैसे
थके हुवे पंछी को छाम।
किसी भोर के इंतज़ार में
छलकता जैसे चांदनी का जाम।
माँ से आत्मा का ये सफर
होता यु हीं एक दिन तमाम ।
होता यूं हीं एक दिन तमाम।
Leave a Reply