जनवरी की उस सर्द ऋतु में। सब कुछ अच्छा चल रहा था। सुखद समय था मनुज तेज जब। रवि सरीखा जल रहा था। राष्ट्र चढ़े सीढ़ी विकास की, यह स्वप्न नेत्र में पल रहा था। सहसा एक विषाणु आया। संग वो भीषण आतप लाया। बन्द हुआ तब राष्ट्र समूचा। रुका प्रगति का हर पाया। धूल हुए सब स्वप्न हमारे। भय का ऐसा अंधड़ छाया। रिश्ते भूले नाते भूले कई सितारे फंदों झूले। हीरे खोये हमनें कुछ तो। सांस कई अपनों के फूले। अलग अलग सब रहना होगा। कहीं न मृत्यु आकर छू ले। लगा शवों का मेला ऐसे। यम दूतों का रेला जैसे। शंका थी हर मन विचलित था। जीव हरण का खेला जैसे। निःशब्द जग, निरुत्तर रक्षक। था हर जन अकेला जैसे। फिर कर्म जगा उल्लास जगा। फिर भावों का आभास जगा। तज पीड़ा सब निकल पड़े। फिर चारों ओर उजास जगा। अपनी रक्षा अपने हाथ। मानस का विश्वास जगा। संभल चलें, चतुराई हो। फिर नई भोर अंगड़ाई हो। स्व-रक्षा का मंत्र पढें हम। फिर रिश्तों में तरुणाई हो। ध्यान रहे पर इसका सबको। दवा तलक न ढिलाई हो। दवा तलक न ढिलाई हो। - मुसाफ़िर
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