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राह में चलते हुए मेरा बचपन कहीं खो गया।
साथ ही था, जाने कब कहाँ पीछे छूट गया।
मुड़ के देखा तो कोई नहीं था वहां।
जाने किस बात पर वो मुझ से रूठ गया।

वो खाली मैदान अब खाली नहीं रहे।
ना बारिश के बाद अब वहां कोई तितलियां पकड़ता है।
वो कटी पतंग भी अब उस गली में नहीं गिरती।
न कोई अब उसके लिए झगड़ता है।


बेसुध पड़े उस डंडे को देख कर।


पके बेरों से लदी बेरी खड़ी है इंतेज़ार में,
कोई तो आये, और बस ज़रा सा हिला दे।

– अंतर्मन
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About the Author
Dr Ajeet Singh Shekhawat
A dentist by profession and a poet by choice. A humble and contented human with a great sense of emotions which gets reflected in his intense poetry. He says
ख्वाहिशें नहीँ हैं उसकी, तभी शायद रात भर सो लेता है ।
आदमी सच्चा है बहुत, सुना है भीड़ में भी रो लेता है ।
Ajeet shares his inside out through his poetry at Antarmann
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